भरे पूरे परिवार में अकेली पड़ी महिला की पीड़ा है ‘अ वुमेन अलोन’

दिल्ली के सुखमंच थिएटर ग्रुप ने गार्गी कॉलेज में 1997 के साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता इटैलियन नाटककार एवं अभिनेता डारियो फो का एक नाटक प्रस्तुत किया। फो के इटैलियन भाषा के नाटक ला फिओसिनना को अनगिनत भाषाओं में अनुवाद किया गया है। अंग्रेजी में उसे अ वुमेन अलोन नाम से अनुदित कर दुनिया के कई हिस्सों में प्रदर्शित किया जा चुका है। अ वुमेन अलोन को सुखमंच थिएटर ग्रुप की मशहूर अभिनेत्री शिल्पी मारवाह ने गार्गी कॉलेज में 19 सितंबर 2017 को एकल प्रस्तुति दी। शिल्पी ने परिवार में सबके होते हुए भी बिल्कुल अकेली पड़ी महिला की पीड़ा को दर्शकों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी को बखूबी निभाया। खचाखच भरे हाल में हर महिला को यह महसूस हो रहा था कि पूरा तो नहीं पर उस अकेली महिला का दर्द किसी ना किसी रूप में, कम या अधिक मात्रा में आज भी हम सबके भीतर मौजूद है।




आज महिलाएं भले समाज के हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं पर कहीं ना कहीं उन्हें वह आजादी नहीं है जिसकी वे वास्तविक रूप से हकदार हैं। माँ के गर्भ में भ्रूण के आते ही यह चर्चा शुरू हो जाती है कि इसे मारे या बचाएं। बच गई तो इस पर ध्यान ज्यादा लगाया जाता है कि इसे पढ़ाएं या ना पढ़ाएं। पढ़ाना भी तो क्या पढ़ाएंपढ़ लिख गई तो उसे तय करने का भी अधिकार नहीं है कि वह नौकरी करे या ना करे अथवा करे भी तो कौन सी नौकरी करे। ऐसे परिवेश में वह विवाह का फैसला कर पाए इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज 21वीं शदी में भी स्त्री आगे बढ़ती हुई दिखती तो है पर वह आजाद नहीं है। आजादी का कई बार लोग गलत मतलब निकाल लेते हैं। हमारी आजादी को कई बार क्या पहने, कहाँ घूमे के दायरे में सिमटाकर रख दिया जाता है। दरअसल असल आजादी तो यह है कि हमें सोचने का हक हो। अपने जीवन के बारे में बेहतर निर्णय लेने का हक हो। बिना इसके स्त्री की कथित आजादी के कोई मायने नहीं रह जाते।


डारियो फो का नाटक अ वुमेन अलोन स्त्री की कुठिंत हो गई सोच का एक नतीजा है। और यह कुंठा उसकी सोच को विकसित नहीं होने देने के कारण है। विवाहित हो जाने के बाद वह पति के घर में कैद हो जाती है। मानो स्त्री इसी के लिए बनी हो। उसकी मंजिल यहीं तक हो। वह बाहर नहीं निकल सकती। इन सब के बावजूद उस पर शक किया जाता है। बच्चे पैदा कर उनमें फंसा दिया जाता है। पति शराब पीता है। एक पत्नी की आवश्यकताएं पूरी करना तो दूर उसे मारता पीटता है। शारीरिक रूप से बीमार और मानसिक रूप से कुंठित देवर की सेवा करने के लिए उसे बाध्य किया जाता है। वह देवर की कुदृष्टि का शिकार बनती है। उसके खिलाफ आवाज नहीं उठा सकती है। ऐसा करने पर उस पर ही लांचन लगाया जाता है। उसे डांस करने का शौक है। घर में अकेली कभी-कभी नाचती भी है। अपना फ्रस्टेशन निकालती है। घुट-घुट कर जीती है। पति से रिक्वेस्ट पर एक डांस टीचर आता है। वह उसके प्रेम जाल में फंस जाती है। उसके साथ शारीरिक जरूरतें पूरी करती है। अंत में पता चलता है कि वह उससे नहीं बल्कि उसकी देह से प्रेम करता है। देह की भूख मिटाने के लिए उसके पास आया था। वह एक बार फिर टूटती है और टूटती चली जाती है।



यह नाटक भले सभी स्त्रियों का दर्द ना हो पर इसका कुछ न कुछ अंश ज्यादातर स्त्रियों का हिस्सा आज भी है। विकसित होते समाज में स्त्रियों के प्रति नजरिया अभी भी नहीं बदला है। सुखमंच ग्रुप की पहचान और नुक्कड़ नाटक की पर्याय बन चुकी शिल्पी मारवाह ने अपने बेहतरीन नाट्य कौशल से मंत्रमुग्ध कर दिया। यह नाटक स्त्री समस्या को उजागर करने के साथ-साथ एक रास्ता दिखा जाता है कि बाकी स्त्रियां किसी घुटन से कैसे बाहर निकलें? अपनी सोच को आजाद कैसे करें? यह नाटक पुरुषों को कटघरे में खड़ा करने वाला नहीं है बल्कि उनकी पुरुषवादी मानसकिता पर गहरी चोट करने वाला है। समाज में स्वस्थ सोच का होना बहुत जरूरी है। अच्छी और स्वस्थ सोच ही समाज को बेहतरी की ओर ले जा सकती है।

  कँवलजीत कौरशोध छात्राहिंदी विभागबीएचयू )

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